सरसों के तेल का भारत की रसोई के साथ-साथ संस्कृति व धर्म में भी खासा महत्व है। देश में तेल तो बहुत इस्तेमाल किए जा रहे हैं, लेकिन सरसों के तेल की महिमा निराली है। उसका कारण यह है कि यह आहार के साथ-साथ मसाले, औषधि सहित शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ऑयल के रूप में भी प्रयोग होता है। सरसों के तेल का एक बड़ा गुण कोलेस्ट्रॉल की समस्या को कम करने के अलावा शरीर की इम्युनिटी को भी बढ़ाता है। हजारों वर्षों से सबके सेहत का ख्याल रख रहा है सरसों का तेल। 

एक जानकारी के अनुसार चीन, भारत और पाकिस्तान सरसों के विश्व उत्पादन का लगभग 90% हिस्सा पैदा करते हैं। इसकी बड़ी विशेषता यह है कि धर्म-कर्म के अलावा तंत्र-मंत्र में इसका प्रयोग लाभकारी माना जाता है। अथर्ववेद, जिसमें आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, औषधियों के अलावा तंत्र-मंत्र का भी वर्णन हैं, उसमें सरसों के तेल को बहुउपयोगी बताया गया है। भविष्य पुराण, पद्म पुराण व महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ में सरसों के तेल में औषधि मिलाकर स्नान करने से लक्ष्मीजी, यमराज व अन्य देवी-देवताओं के प्रसन्न होने का वर्णन किया गया ह। हिंदू धर्म में मान्यता है कि शनिदेव, हनुमान व भगवान भैरव के मंदिरों में सरसों के तेल चढ़ाने या उसका दीया जलाने से वे प्रसन्न होते हैं। तुलसी के पौधे के नीचे शाम को तेल का दीया जलाना सालों से जारी है, दीवाली पर सरसों के तेल के ही दीये जलाए जाते हैं तो पिछले दो-तीन साल से अयोध्या में दीवाली के आसपास सरसों के तेल के लाखों दीए जलाए जा रहे है। 

सरसों की उत्पत्ति की यात्रा की बात करें तो अमेरिका स्थित ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी के वनस्पति विज्ञान की प्रोफसर सुषमा नैथानी के अनुसार इसका मूल केंद्र सेंट्रल एशियाटिक सेंटर है, जिसमें उत्तर पश्चिमी भारत, अफगानिस्तान, तजाकिस्तान और उजबेकिस्तान हैं। दूसरी ओर खाद्य इतिहासकार भी मानते हैं कि पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि 3000 ईस पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता में सरसों के तेल का उपयोग किया जा रहा था। वैसे सोवियत संघ के वनस्पति विज्ञानी निकोलाई इवानोविच वाविलोव (वर्ष 1887-1943), जिन्होंने दुनियाभर के खेती वाले पौधों के उत्पत्ति केंद्र की पहचान की। उनका कहना है कि सरसों की उत्पत्ति चीन, भारत और यूरोप के किसी स्थान पर हुई थी। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ने भी सरसों को सिंधु घाटी की सभ्यता के साथ जोड़ा है। आज पूरे दक्षिण एशिया में सरसों का तेल प्रमुख खाद्य ऑयल के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। 

गुणवत्ता के मामले में सरसों का तेल सभी तेलों से आगे है। दावा यह भी है कि यह ऑलिव ऑयल से भी ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक है। भारत के प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथ के ‘आहारयोगीवर्ग:’ में कई खाद्य तेलों का वर्णन है। उसमें सरसों के तेल को कटु, गरम, कफ व वायु को हरने वाला व खुजली और कोठ (शरीर पर बड़े बड़े चकत्ते) को नष्ट करने वाला है. लेकिन यह रक्त-पित्त को दूषित भी करता है। दूसरी ओर पूसा के वरिष्ठ वनस्पति विज्ञानी डॉ. बिश्वजीत चौधरी के अनुसार प्रोटीन, मिनरल्स व विटामिन ए और सी से भरपूर है सरसों और उसका तेल। अगर तुलनात्मक अध्ययन करें तो 100 ग्राम सरसों में 4% प्रोटीन, करीब 3% कार्बोहाइड्रेट, 1.6% मिनरल्स, 0.6% फैट और 33 कैलोरी होती है। इसमें कैल्शियम, आयरन भी पाया जाता है। अपने इन्हीं पोषणकारी तत्वों के कारण कोलेस्ट्रॉल को कम रखता है, शरीर की प्रतिरक्षा बढ़ाता है और दिल के रोग व धमनियों में रुकावट से बचाता है। इसमें एलिल आइसोथियोसाइनेट नामक यौगिक (तीखापन) तत्व होता है, जो फंगल इन्फेक्शन से बचाता है, तभी इसके तेल की मालिश लाभकारी मानी जाती है। मालिश करने से जोड़ों में सूजन और गठिया के लक्षणों में भी लाभ मिलता है। 

आयुर्वेद के अनुसार सरसों के तेल में ओलिक एसिड और लिनोलिक फैटी एसिड होते हैं, जो बालों के लिए लाभकारी हैं। इसकी एक विशेषता यह भी है कि तेल श्वसन संबंधी बीमारियों और एलर्जी को कम करने में मदद करता है। अगर भोजन में रोजाना एक चम्मच तेल का इस्तेमाल किया जाए तो ब्लड में थक्के से बचाव होगा और कैंसर कोशिकाओं की सक्रियता कम हो जाएगी। यह पाचन सिस्टम में भी सुधार करता है। सरसों के बीज में एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी (सूजन से बचाव) प्रभाव वाले तत्व होते हैं जो मसूड़े, हड्डी और दांतों के दर्द से राहत दिलाने हैं। इसमें मौजूद विटामिन ए व सी बुढ़ापे की परेशानियों को रोकते हैं। सरसों के तेल के कुछ नुकसान भी हैं। इसमें इरुसिक एसिड और ओलेक एसिड होता है, जिसे जहरीला माना जाता है, इसलिए इस तेल का अधिक प्रयोग न करें. ये एसिड दिल और श्वसन सिस्टम को प्रभावित कर सकते हैं। मांसपेशियों को भी नुकसान हो सकता है।